मृत्यु क्या है ?

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मृत्यु अस्तित्व का गहनतम रहस्य है । ईश्वर भी इतना गहरा रहस्य नहीं है, प्रेम भी इतना गहरा रहस्य नहीं है जितनी मृत्यु क्योंकि ईश्वर को झुठलाया जा सकता है, प्रेम से बचा जा सकता है; लेकिन मृत्यु को कोई नहीं झुठला सकता, इससे कोई नहीं बच सकता । मृत्यु हर जगह मौजूद दिखती है, हर क्षण घटित होती हुई, हर वस्तु, हर व्यक्ति को नष्ट करती हुई। इसलिए मृत्यु हर जागरूक व्यक्ति के लिए एक चुनौतीपूर्ण प्रश्न बन गयी है ।             मुख्यतः, मृत्यु में क्षति और विनाश के भाव निहित हैं । इससे होने वाली क्षति साधारण नहीं होती । यह सब कुछ छीन लेती है। इस क्षति से कभी उबरा नहीं जा सकता । जो गुज़र गया वह कभी लौटकर नहीं आता । इसलिए इससे बड़ी क्षति कोई नहीं । और विनाश भी साधारण नहीं, बल्कि पूर्ण विनाश होता है, महाविनाश । मृत व्यक्ति का पूरा-का-पूरा अस्तित्व ही मिट जाता है । नामोनिशान समाप्त हो जाता है । यही कारण है कि मृत्यु मनुष्य का सबसे डरावना, सबसे आतंकित करने वाला अनुभव बन गई है ।             किन्तु जब भी हम मृत्यु को देखते हैं हम हमेशा इसे बाहर से ही देखते हैं । इसे देखने का एक और दृष्टिकोण आतंरिक दृष्टि है । बाहर से देखने पर मृत्यु सदैव ही विनाशकारी प्रतीत होती है क्योंकि यह हर वह चीज़ नष्ट कर देती है जिसे हम सच मानकर चलते हैं । और चूँकि हम शरीर से भिन्न कुछ और नहीं देख पाते और मृत्यु शरीर को नष्ट कर देती है इसीलिए हमें मृत्यु विनाशकारी दिखती है । आतंरिक दृष्टि से हमें अपने अन्दर एक गहन मौन की अनुभूति होती है, और इस मौन में मृत्यु मिट जाती है । मृत्यु कभी इस मौन को छू नहीं पाती ।             इन दो दृष्टिकोणों ने मृत्यु के सम्बन्ध में दो विपरीत मतों को जन्म दिया है । एक मत यह है कि मृत्यु सबसे विनाशकारी शक्ति है और दूसरा यह कि मृत्यु जैसी कोई चीज़ होती ही नहीं । ओशो कहते हैं कि मृत्यु सबसे बड़ा झूठ है । यदि मृत्यु झूठ ही है तो यह हमें इतनी पीड़ा, इतना विषाद क्यों देती है ? और सबसे बढ़कर, यह हमें इतना डराती क्यों है ? उत्तर है : सीमित दृष्टि । एक बार आप आतंरिक दृष्टि को जान लें, तब पहली बार आप उस मौन को जानते हैं जो मृत्यु के पार है । और सबसे महत्तवपूर्ण बात यह है कि जिस क्षण आप अपने अन्दर मरणातीत मौन को जानते हैं उसी क्षण आप दूसरों में भी उसी मौन को जान लेते हैं, फिर चाहे दूसरों को उस मौन की अनुभूति हो या न हो । और उसी क्षण आप मुक्त हो जाते हैं। मरणातीत की अनुभूति परम मुक्ति है । मेरे गृहनगर कटनी में एक बुजुर्ग सज्जन थे । एक दिन उनके पास एक व्यक्ति अचानक आया और उन्हें बताया कि उनके बेटे की एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई है । बुजुर्ग ने ऐसी प्रतिक्रिया दी मानो कुछ हुआ ही न हो । वे बिलकुल शांत और स्थिर थे । उनकी शांतचित्त दशा इतनी अजीब नहीं थी जितना उनका उत्तर । उन्होंने संदेशवाहक से कहा, “मैं अपने लिए मिठाई ख़रीदने जा रहा हूँ । तो तुम लोग एक काम करो : अर्थी तैयार करके श्मशान पहुँचो । मैं तुम्हें वहीं मिलूँगा ।” कमाल की बात है! बाहरी तौर पर ऐसा लगता है कि बुजुर्ग बड़े कठोर हृदय थे । लेकिन ऐसा नहीं था । वे एक गहरे ध्यानी थे । वे वर्षों से ध्यान कर रहे थे और उन्होंने निश्चित ही मरणातीत को जाना था । फिर उन्हें शोक कैसा ? उन्हें मालूम था कि उनके बेटे की देह मात्र नष्ट हुई है । कोई कारण नहीं था कि वे “क्षति” का शोक मनाएं । क्योंकि कोई क्षति हुई ही नहीं थी । शोक मनाना उतनी ही बचकानी बात थी मानो कोई किसी वस्त्र के नष्ट होने पर यह सोच रहा हो कि वस्त्र के साथ-साथ वस्त्र पहनने वाला भी नष्ट हो गया । उन बुजुर्ग ध्यानी ने यह बात जान ली थी कि देह एक वस्त्र मात्र है और इसके अन्दर उपस्थित चेतन सत्य अक्षय और अविनाशी है । ऐसी ही एक और घटना है : भारत में एक आध्यात्मिक आचार्य हैं जग्गी वासुदेव । उनकी पत्नी की योग मृत्यु हुई, अर्थात् उन्होंने अपना शरीर स्वेच्छा से छोड़ा । उन्होंने यह सैकड़ों लोगों की उपस्थिति में किया । उनके लिए वह क्षण आ गया था जो हज़ारों जन्मों के बाद आता है जब कोई व्यक्ति अपने सारे तादात्म्य तोड़ देता है, अपने और अपने शरीर के बीच में अंतर जान लेता है, और स्वेच्छा से देह त्याग करने के लिए तैयार होता है । इसीलिए उन्होंने शरीर छोड़ दिया, उतनी सरलता से जितनी सरलता से हम वस्त्र उतार देते हैं । और जग्गी वासुदेव, जब वे यह कहानी सुना रहे थे, परम शांत थे मानो कुछ हुआ ही न हो । जग्गी एवं उनकी पत्नी दोनों ने अशरीरी को जाना था इसलिए उन्होंने मृत्यु को इतनी सहजता, इतने प्रेम से स्वीकारा । ये लोग–बुजुर्ग और जग्गी एवं उनकी पत्नी–मृत्यु को एक प्रकार से जीते हैं और शोक, संताप, भय से ग्रस्त लोग दूसरे प्रकार से ।             इन विपरीत मतों के बीच का अन्तर कहाँ से पैदा होता है ? अंतर साक्षीभाव से आता है । साक्षी बनकर उसे जाना जा सकता है जो देह के पार है । और इस तरह विदेह होकर वही चेतन तत्व दूसरों में भी जाना जा सकता है । बिना यह जाने मृत्यु की पीड़ा से मुक्त नहीं हुआ जा सकता ।            आइये यह जानने का प्रयास करें कि वह क्या है जिससे मृत्यु का आभास होता है, मृत्यु के बाद क्या शेष रहता है, और उस शेष तत्व को कैसे जाना जा सकता है ।             सबसे पहले हमें यह समझना है कि मनुष्य के अस्तित्व कितनी पर्तें हैं । आमतौर पर यह माना जाता है कि मनुष्य दो चीज़ों से बना है : पदार्थ और चेतना । पदार्थ में सभी भौतिक चीजें शामिल हैं जैसे फेफड़े, गुर्दे, हृदय, हाथ, पैर, इत्यादि । और परम तत्व, यानि जीवन शक्ति है चेतना । दरअसल, एक और पर्त है : मन । मन शरीर और चेतना के बीच की कड़ी है । मन ही दोनों को जोड़ कर रखता है । मन इस जगत का सबसे पेचीदा यन्त्र है । इसी के माध्यम से संस्कार अपनी यात्रा करते हैं, जो कि पुनर्जन्म का कारण बनते हैं । दूसरे, मन ही तादाम्य का जनक है । इसी तादाम्य के कारण हम शरीर से बंध जाते हैं और चेतना को भूल जाते हैं । इसलिए हम मन के इन दो पहलुओं– तादाम्य का जनक और संस्कारों का वाहक–के बारे में चर्चा करेंगे ।             यदि आपको स्वयं को परिभाषित करने को कहा जाये तो आपका उत्तर, बहुत संभव है, आपका नाम होगा, फिर आपके पिता नाम, माता का नाम, आपका परिवार, और आपका व्यवसाय । जब आप यह विश्वास करने लगते हैं कि ये चीज़े आपको परिभाषित करती हैं तब आप इनसे बंध जाते हैं । फिर इस बंधन को तोड़ पाना बहुत मुश्किल होता है । जब आप यह मानने लगते हैं कि इन पहचानों ने आपकी रचना की है, तब यदि कोई इनको मिटाने का प्रयास करता है तो अचानक आपको भय महसूस होने लगता, मानो मृत्यु का भय हो । कल्पना करके देखें कि आपका कोई नाम, कोई पारिवारिक संबंध, कोई व्यावसायिक जुड़ाव, कुछ भी नहीं है । तब आप इस जगत में किस रूप में विद्दमान होगें ? आप केवल मौन-रूप में होगें । वह मौन ही मरणातीत है । इसके विपरीत, आपके अन्दर पहचानों की जितनी भीड़ होगी, उतना कम मौन होगा; और जितना कम मौन होगा, उतना मृत्यु का भय होगा । तो सबसे पहली बात यह समझनी है कि मन से तादाम्य पैदा होता है और तादाम्य से दुःख पैदा होता है । कभी अवलोकन करके देखें : मान लें आपका नाम राम है । अब, यदि कोई व्यक्ति राम को गाली दे रहा हो, आपको नहीं, कोई और राम, तब आपको कुछ चुभेगा, आप आहत होगें । क्यों ? क्योंकि आपने ‘राम’ नाम से तादाम्य जोड़ लिया है । और यदि कोई लक्ष्मण को गाली दे तो आपको आहत नहीं होगें । क्यों ? वही कारण : आपने लक्ष्मण नाम से तादाम्य नहीं जोड़ा । नामों से पहचान की सतही पर्त तैयार होती है । याद रखिये, यदि आपका नाम राम न हो, तब भी आप होगें । या यदि आपका कोई भी नाम न हो, तब भी आप होगें । इसका सीधा सा अर्थ है कि हम किसी भी नाम जैसी पहचान के बिना भी होते हैं ।             अगली बात है संस्कार । संस्कार वास्तव में तादाम्य से पैदा होते हैं । मृत्यु के क्षण हम विशेष प्रकार के संस्कारों से भरे होते हैं, और यही संस्कार हमारे पुनर्जन्म का कारण बनते हैं । अतः, संस्कार आंशिक रूप से हमारी पहचानों से निकलते हैं । आंशिक रूप से हमारी इच्छाओं से । जितनी इच्छाएँ हमारे अन्दर होती हैं, उतना प्रबल हमारा मन होता है क्योंकि मन ही इच्छाओं को पैदा करता है और उन्हें पोषित भी करता है । जितने ज़्यादा संस्कार आपके अन्दर होते हैं, उतनी ही पुनर्जन्म की सम्भावना प्रबल होती है ।             पुनर्जन्म होता है या नहीं यह हमेशा से विवाद का विषय रहा है । वैसे, हमारा मन कैसे काम करता है, हमारी इच्छाएँ हमें कैसे पीड़ा देती हैं, ये जानने के लिए हमें मरने की आवश्यकता नहीं है । हम इसे दैनिक जीवन के उदाहरणों से भी समझ सकते हैं । यदि कोई व्यक्ति एक बड़ा सा घर या कोई शानदार गाड़ी ख़रीदने के लिए लालायित है तो वह इन्हीं चीज़ों के सपने देखेगा । इच्छाएँ ही सपनों को निर्मित करती हैं । यदि कोई प्रधानमंत्री या कोई बड़ा उद्योगपति बनना चाहता है तो उसे सपने भी वैसे ही आएंगे । जितने ज़्यादा सपने होगें उतना लम्बा जीवन खिंचेगा । सीधी सी बात है कि उन सपनों को पूरा करने के लिए समय भी तो चाहिए । इसके उल्टे, जितने कम सपने उतनी आसानी से मृत्यु स्वीकार होगी । और एक स्वप्नरहित चित्त मृत्यु का सहजता से स्वागत करेगा क्योंकि फिर जीवन पूर्ण होगा, कुछ भी अधूरा नहीं छूट रहा होगा । इसीलिए सदियों से सारे बुद्धों, ऋषियों, संतों ने इच्छाओं के निषेध का पाठ सिखाया है । और याद रखिये, केवल वे ही इच्छाएँ दुःख नहीं देतीं जो पूरी नहीं होतीं, बल्कि वे इच्छाएँ भी दुःख देती हैं जो पूरी हो जाती हैं क्योंकि वे नयी इच्छाएँ पैदा करती हैं । कल्पना करें कि आपको अपनी मनपसंद नौकरी मिल जाती है । और मन कहता है, “देखो, मैं सन्तुष्ट हूँ अब । मेरी अब कोई और इच्छा नहीं है । तुम्हारे संत निर्बुद्धि हैं जो यह कहते हैं कि इच्छाएँ कभी पूरी नहीं हो सकतीं ।” लेकिन मन फिर दूसरी दिशा में लालायित हो जाता है : “यह तो सच है कि तुम्हारी नौकरी बहुत अच्छी है । लेकिन यह शहर बड़ा प्रदूषित है । कोई साफ़-सुथरी जगह यही नौकरी मिल जाए तो फिर बात ही क्या!” और इस तरह इच्छाओं का द्वन्द पैदा होता रहता है ।             जैसे ही आप इच्छाएँ त्याग देते हैं आप अपने और शरीर के बीच एक दूरी देखने लगते हैं । और जितनी कम इच्छाएँ उतना शिथिल मन । धीरे-धीरे मन का विलय होता जाता है । और एक क्षण आता है जब मन बचता ही नहीं । उस अवस्था को अ-मन अवस्था या मनातीत कहते हैं । अचानक आप पाते हैं कि आप दृष्टा-मात्र हैं । इसे ही कृष्ण ने गीता में साक्षी कहा है । इसके बाद आता है मौन, एक गहन शून्य । इस मौन में आप स्वयं के साक्षी हो जाते हैं । यह सबसे अजीब अनुभव है । एक क्षण के लिए आप को लगता है कि आप हैं ही नहीं । साथ ही, आप दूसरों के शरीर के भी साक्षी हो जाते हैं । तब आपको यह अनुभूति होती है कि बिना शरीर के भी आपका अस्तित्व हो सकता है । मैं दोहराता हूँ : आप बिना देह के भी हो सकते हैं । इस साक्षी-भाव में मृत्यु का भय समाप्त हो जाता है क्योंकि आप जान लेते हैं कि शरीर के नष्ट होने पर भी आप जीवित रहेंगे ।             इसीलिए यह कहा जा सकता है कि मृत्यु दो प्रकार की होती है : बाह्य मृत्यु और आतंरिक मृत्यु । बाह्य मृत्यु देह की मृत्यु है, पदार्थ की मृत्यु; आतंरिक मृत्यु है तादाम्य की मृत्यु, संस्कारों की, इच्छाओं की, मन की मृत्यु । जब तक हम आतंरिक मृत्यु नहीं मरते तब तक मृत्यु के भय से मुक्त होना असंभव है । हमें बार-बार मरना पड़ेगा । यह बाह्य मृत्यु ही इस जगत का सबसे बड़ा दुःख है ।             बुद्ध ने कहा है कि जगत दुखपूर्ण है । उन्होंने यह बात बड़े स्पष्ट और प्रत्यक्ष रूप में कही है । वे जीवन के कटु अनुभवों की ही बात नहीं कर रहे; उनके अनुसार, जीवन अपने आप में ही दुःख है । नानक ने भी कहा है, “नानक, दुखिया सब संसार ।” बुद्ध और नानक हमें बड़े निराशावादी से लगते हैं । वे कहना क्या चाहते हैं ? वे यह कहना चाहते हैं कि जब तक हम बाह्य मृत्यु मरते रहेंगे तब तक दुखी रहेंगे । क्यों ? क्योंकि इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि आप क्या करते हैं, कितना धन-प्रिसिद्धि पाते हैं, आपके साथ कितने भले, प्रेमी लोग हैं; जब तक मृत्यु है सब कुछ छूट ही जाना है । इसे ही बुद्ध ने अनित्यता का नियम कहा है । जो भी चीज़ समाप्त होने ही वाली है वह कभी स्थायी आनंद नहीं दे सकती ।             संस्कृत में एक शब्द है ‘क्षणभंगुर’, क्षण में भंग हो जाने वाला । हमें ऐसा लगता है कि जो चीज़ें कम अवधि तक जीवित रहती हैं वे क्षणभंगुर हैं । जैसे कि किसी पकवान का स्वाद, आप उसे जीभ पर रखते है, निगलते हैं, और स्वाद समाप्त । फिर आपकी जीभ उस स्वाद का मज़ा दुबारा नहीं ले सकती । यह क्षणिक है । इसीलिए हम यही निष्कर्ष निकालते हैं कि जिनका जीवन छोटा है वे चीज़े या घटनाएँ क्षणभंगुर हैं । लेकिन ऐसा नहीं है । जो कुछ भी समय में बंधा है, समय की परिधि तक सीमित है वह क्षणभंगुर है । यदि उसकी उम्र एक सौ साल या एक हज़ार साल भी हो तब भी वह क्षणभंगुर ही है । क्या आपके साथ कभी ऐसा नहीं होता कि आपकी दो महीने लम्बी छुट्टियाँ ऐसा लगता है मानो एक क्षण में ही बीत गयी हों ? बहुत लोग ऐसे हैं जिन्हें लगता है कि उनकी पूरी ज़िन्दगी ही एक क्षण में निकल गयी । समय-बद्ध जीवन या अनुभव हमेशा ही क्षणिक होता है । इसके विपरीत, जो समय के पार है वह नित्य, ‘इटरनल’ है । नित्य का अर्थ “हमेशा के लिए” नहीं होता । इसका मतलब है समयशून्यता । और यह समयशून्यता ही अमरता है । जब कभी आप समय के पार होते हैं, चाहे एक क्षण के लिए ही सही, आप अमरत्व को चख लेते हैं । कोई भी क्षण जब गहन त्वरा में जिया जाए तो वह आपको समय से मुक्त कर देता है ।             अब हमें समय के शून्य होने और समय के खोने में अंतर समझना होगा । जब आप बेहोश होते हैं तब पता ही नहीं चलता कि समय कैसे बीत गया । इस स्थिति में आप समय को महसूस नहीं करते । लेकिन फिर भी, आप समय के पार नहीं होते, बस बेहोश होते हैं । उदाहरण के लिए, आप आठ या दस घंटे सोते हैं । जब आप उठते हैं आप को लगता है कि मानो एक मिनट ही गुज़रा है । यह समयशून्यता नहीं है । दूसरी तरफ़, जब आप होश में होते हैं, किसी चीज़ के प्रति नहीं, बस होश में, वर्तमान क्षण में डूबे हुए, तब आप समय के आयाम का अतिक्रमण कर जाते हैं । जैसे, जब कभी कोई खेल खेलते हैं जो आपको बहुत पसंद है । आप पूरे-के-पूरे डूबे होते हैं । तब कोई मन नहीं होता जो समय की गणना करे । उस क्षण, जाने-अनजाने, आप समय के पार होते हैं ।             समयशून्यता ही नित्यता है और समयबद्धता ही अनित्यता है ।            जब आप स्वयं और शरीर के बीच एक दूरी देखने लगते हैं, जब शरीर के साक्षी होते हैं, तब आप समयशून्य, या अमर होते हैं । अमरत्व की इस रौशनी में मृत्यु का अँधेरा छंट जाता है ।             लेकिन ये सारे सत्य हमें अपने अनुभव से जानने चाहिए । बिना अनुभव हमें दुःख ही मिलने वाला है । ऐसे लोग हैं जिन्होंने सारी “पवित्र” नदियों–गंगा, यमुना, सरस्वती–में डुबकियाँ लगाईं हैं, सारे “पवित्र” स्थानों पर तीर्थयात्रा की है । धार्मिक किताबें कहती हैं कि इन नदियों में डुबकियाँ लगाने से और तीर्थयात्रा करने से मोक्ष मिलता है । मैं ऐसे सैकड़ों लोगों से मिला हूँ जिन्होंने पूरा जीवन डुबकियाँ लगाने और तीर्थयात्रा करने में बिता दिया । फिर भी, वे मृत्यु से भयभीत हैं । क्यों ? अनुभव की कमी के कारण । और जानकारी और अनुभव के अंतर ने न केवल दुःख पैदा किया है बल्कि अंतर्विरोध भी । उदाहरण के लिए, मनुस्मृति में मनु ब्राह्मण को द्विज कहता है । द्विज का अर्थ जिसका दुबारा जन्म हुआ है । और फिर एक जगह मनु कहता है कि यदि कोई ब्राह्मण कोई पाप करता है तो उस पाप से मुक्ति के लिए उसे कुछ संस्कार करने होगें । अब, यह मूढ़ता है । द्विज का अर्थ है जिसने आतंरिक मृत्यु जी ली है और उसका पुनर्जन्म हो गया है । जिसका मन तिरोहित हो गया है वही द्विज है । द्विज की सारे तादाम्य टूट गए हैं, और पर्दे के पीछे छिपे अरूप और अनाम व्यक्त हो गया है । जीसस भी बाइबिल में यही बात कहते हैं : “जब तक आपका दुबारा जन्म नहीं होता तब तक आप परमात्मा के राज्य में प्रवेश नहीं कर सकते ।” जीसस एवं ऋषि एक ही बात कह रहे हैं क्योंकि उन्होंने अपने द्विज तत्व की अनुभूति कर ली है । लेकिन मनु जैसे पुरोहित ऐसी ही बातें करने वाले हैं : वे एक व्यक्ति को द्विज भी कह सकते हैं और यह भी सोच सकते हैं कि वह कोई पाप भी कर सकता है! द्विज का अर्थ है अहम् की आहुति चढ़ गयी, अहम् भस्म हो गया । स्वाहा! और जो रहा ही नहीं, जो अकर्ता बन गया, जो समर्पित हो गया, वह पाप कैसे करेगा ?! द्विज तो एक माध्यम मात्र होता है । वह कोई अपराध कैसे कर सकता है ? कोई चाकू ख़ुद से किसी की हत्या कैसे कर सकता है ? कोई व्यक्ति इससे किसी को मार सकता है, और फिर वो व्यक्ति ही अपराधी होगा । और यहाँ तो स्वयं जीवन शक्ति, परम चेतना, स्वयं अस्तित्व ही उस यन्त्र का उपयोग कर रहा है । इसीलिए द्विज को पापी कहना का अर्थ स्वयं अस्तित्व को पापी कहना है । मनुस्मृति में ऐसे अंतर्विरोध हर जगह मिल जाएँगे । यही अंतर होता है एक तोता पंडित और अनुभवी ज्ञानी में ।             अंततः, यदि मरणातीत को जानना चाहते हैं तो इसे अपने अन्दर खोजें । एक बार आप इसे जान लें तो मृत्यु मिट जाती है । और यह प्रश्न, “मृत्यु क्या है ?” भी मिट जाता है । फिर न कोई बाह्य मृत्यु होती है, न आतंरिक मृत्यु; फिर शाश्व

मृत्यु अस्तित्व का गहनतम रहस्य है । ईश्वर भी इतना गहरा रहस्य नहीं है, प्रेम भी इतना गहरा रहस्य नहीं है जितनी मृत्यु क्योंकि ईश्वर को झुठलाया जा सकता है, प्रेम से बचा जा सकता है; लेकिन मृत्यु को कोई नहीं झुठला सकता, इससे कोई नहीं बच सकता । मृत्यु हर जगह मौजूद दिखती है, हर क्षण घटित होती हुई, हर वस्तु, हर व्यक्ति को नष्ट करती हुई। इसलिए मृत्यु हर जागरूक व्यक्ति के लिए एक चुनौतीपूर्ण प्रश्न बन गयी है ।             मुख्यतः, मृत्यु में क्षति और विनाश के भाव निहित हैं । इससे होने वाली क्षति साधारण नहीं होती । यह सब कुछ छीन लेती है। इस क्षति से कभी उबरा नहीं जा सकता । जो गुज़र गया वह कभी लौटकर नहीं आता । इसलिए इससे बड़ी क्षति कोई नहीं । और विनाश भी साधारण नहीं, बल्कि पूर्ण विनाश होता है, महाविनाश । मृत व्यक्ति का पूरा-का-पूरा अस्तित्व ही मिट जाता है । नामोनिशान समाप्त हो जाता है । यही कारण है कि मृत्यु मनुष्य का सबसे डरावना, सबसे आतंकित करने वाला अनुभव बन गई है ।             किन्तु जब भी हम मृत्यु को देखते हैं हम हमेशा इसे बाहर से ही देखते हैं । इसे देखने का एक और दृष्टिकोण आतंरिक दृष्टि है । बाहर से देखने पर मृत्यु सदैव ही विनाशकारी प्रतीत होती है क्योंकि यह हर वह चीज़ नष्ट कर देती है जिसे हम सच मानकर चलते हैं । और चूँकि हम शरीर से भिन्न कुछ और नहीं देख पाते और मृत्यु शरीर को नष्ट कर देती है इसीलिए हमें मृत्यु विनाशकारी दिखती है । आतंरिक दृष्टि से हमें अपने अन्दर एक गहन मौन की अनुभूति होती है, और इस मौन में मृत्यु मिट जाती है । मृत्यु कभी इस मौन को छू नहीं पाती ।             इन दो दृष्टिकोणों ने मृत्यु के सम्बन्ध में दो विपरीत मतों को जन्म दिया है । एक मत यह है कि मृत्यु सबसे विनाशकारी शक्ति है और दूसरा यह कि मृत्यु जैसी कोई चीज़ होती ही नहीं । ओशो कहते हैं कि मृत्यु सबसे बड़ा झूठ है । यदि मृत्यु झूठ ही है तो यह हमें इतनी पीड़ा, इतना विषाद क्यों देती है ? और सबसे बढ़कर, यह हमें इतना डराती क्यों है ? उत्तर है : सीमित दृष्टि । एक बार आप आतंरिक दृष्टि को जान लें, तब पहली बार आप उस मौन को जानते हैं जो मृत्यु के पार है । और सबसे महत्तवपूर्ण बात यह है कि जिस क्षण आप अपने अन्दर मरणातीत मौन को जानते हैं उसी क्षण आप दूसरों में भी उसी मौन को जान लेते हैं, फिर चाहे दूसरों को उस मौन की अनुभूति हो या न हो । और उसी क्षण आप मुक्त हो जाते हैं। मरणातीत की अनुभूति परम मुक्ति है । मेरे गृहनगर कटनी में एक बुजुर्ग सज्जन थे । एक दिन उनके पास एक व्यक्ति अचानक आया और उन्हें बताया कि उनके बेटे की एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई है । बुजुर्ग ने ऐसी प्रतिक्रिया दी मानो कुछ हुआ ही न हो । वे बिलकुल शांत और स्थिर थे । उनकी शांतचित्त दशा इतनी अजीब नहीं थी जितना उनका उत्तर । उन्होंने संदेशवाहक से कहा, “मैं अपने लिए मिठाई ख़रीदने जा रहा हूँ । तो तुम लोग एक काम करो : अर्थी तैयार करके श्मशान पहुँचो । मैं तुम्हें वहीं मिलूँगा ।” कमाल की बात है! बाहरी तौर पर ऐसा लगता है कि बुजुर्ग बड़े कठोर हृदय थे । लेकिन ऐसा नहीं था । वे एक गहरे ध्यानी थे । वे वर्षों से ध्यान कर रहे थे और उन्होंने निश्चित ही मरणातीत को जाना था । फिर उन्हें शोक कैसा ? उन्हें मालूम था कि उनके बेटे की देह मात्र नष्ट हुई है । कोई कारण नहीं था कि वे “क्षति” का शोक मनाएं । क्योंकि कोई क्षति हुई ही नहीं थी । शोक मनाना उतनी ही बचकानी बात थी मानो कोई किसी वस्त्र के नष्ट होने पर यह सोच रहा हो कि वस्त्र के साथ-साथ वस्त्र पहनने वाला भी नष्ट हो गया । उन बुजुर्ग ध्यानी ने यह बात जान ली थी कि देह एक वस्त्र मात्र है और इसके अन्दर उपस्थित चेतन सत्य अक्षय और अविनाशी है । ऐसी ही एक और घटना है : भारत में एक आध्यात्मिक आचार्य हैं जग्गी वासुदेव । उनकी पत्नी की योग मृत्यु हुई, अर्थात् उन्होंने अपना शरीर स्वेच्छा से छोड़ा । उन्होंने यह सैकड़ों लोगों की उपस्थिति में किया । उनके लिए वह क्षण आ गया था जो हज़ारों जन्मों के बाद आता है जब कोई व्यक्ति अपने सारे तादात्म्य तोड़ देता है, अपने और अपने शरीर के बीच में अंतर जान लेता है, और स्वेच्छा से देह त्याग करने के लिए तैयार होता है । इसीलिए उन्होंने शरीर छोड़ दिया, उतनी सरलता से जितनी सरलता से हम वस्त्र उतार देते हैं । और जग्गी वासुदेव, जब वे यह कहानी सुना रहे थे, परम शांत थे मानो कुछ हुआ ही न हो । जग्गी एवं उनकी पत्नी दोनों ने अशरीरी को जाना था इसलिए उन्होंने मृत्यु को इतनी सहजता, इतने प्रेम से स्वीकारा । ये लोग–बुजुर्ग और जग्गी एवं उनकी पत्नी–मृत्यु को एक प्रकार से जीते हैं और शोक, संताप, भय से ग्रस्त लोग दूसरे प्रकार से ।             इन विपरीत मतों के बीच का अन्तर कहाँ से पैदा होता है ? अंतर साक्षीभाव से आता है । साक्षी बनकर उसे जाना जा सकता है जो देह के पार है । और इस तरह विदेह होकर वही चेतन तत्व दूसरों में भी जाना जा सकता है । बिना यह जाने मृत्यु की पीड़ा से मुक्त नहीं हुआ जा सकता ।            आइये यह जानने का प्रयास करें कि वह क्या है जिससे मृत्यु का आभास होता है, मृत्यु के बाद क्या शेष रहता है, और उस शेष तत्व को कैसे जाना जा सकता है ।             सबसे पहले हमें यह समझना है कि मनुष्य के अस्तित्व कितनी पर्तें हैं । आमतौर पर यह माना जाता है कि मनुष्य दो चीज़ों से बना है : पदार्थ और चेतना । पदार्थ में सभी भौतिक चीजें शामिल हैं जैसे फेफड़े, गुर्दे, हृदय, हाथ, पैर, इत्यादि । और परम तत्व, यानि जीवन शक्ति है चेतना । दरअसल, एक और पर्त है : मन । मन शरीर और चेतना के बीच की कड़ी है । मन ही दोनों को जोड़ कर रखता है । मन इस जगत का सबसे पेचीदा यन्त्र है । इसी के माध्यम से संस्कार अपनी यात्रा करते हैं, जो कि पुनर्जन्म का कारण बनते हैं । दूसरे, मन ही तादाम्य का जनक है । इसी तादाम्य के कारण हम शरीर से बंध जाते हैं और चेतना को भूल जाते हैं । इसलिए हम मन के इन दो पहलुओं– तादाम्य का जनक और संस्कारों का वाहक–के बारे में चर्चा करेंगे ।             यदि आपको स्वयं को परिभाषित करने को कहा जाये तो आपका उत्तर, बहुत संभव है, आपका नाम होगा, फिर आपके पिता नाम, माता का नाम, आपका परिवार, और आपका व्यवसाय । जब आप यह विश्वास करने लगते हैं कि ये चीज़े आपको परिभाषित करती हैं तब आप इनसे बंध जाते हैं । फिर इस बंधन को तोड़ पाना बहुत मुश्किल होता है । जब आप यह मानने लगते हैं कि इन पहचानों ने आपकी रचना की है, तब यदि कोई इनको मिटाने का प्रयास करता है तो अचानक आपको भय महसूस होने लगता, मानो मृत्यु का भय हो । कल्पना करके देखें कि आपका कोई नाम, कोई पारिवारिक संबंध, कोई व्यावसायिक जुड़ाव, कुछ भी नहीं है । तब आप इस जगत में किस रूप में विद्दमान होगें ? आप केवल मौन-रूप में होगें । वह मौन ही मरणातीत है । इसके विपरीत, आपके अन्दर पहचानों की जितनी भीड़ होगी, उतना कम मौन होगा; और जितना कम मौन होगा, उतना मृत्यु का भय होगा । तो सबसे पहली बात यह समझनी है कि मन से तादाम्य पैदा होता है और तादाम्य से दुःख पैदा होता है । कभी अवलोकन करके देखें : मान लें आपका नाम राम है । अब, यदि कोई व्यक्ति राम को गाली दे रहा हो, आपको नहीं, कोई और राम, तब आपको कुछ चुभेगा, आप आहत होगें । क्यों ? क्योंकि आपने ‘राम’ नाम से तादाम्य जोड़ लिया है । और यदि कोई लक्ष्मण को गाली दे तो आपको आहत नहीं होगें । क्यों ? वही कारण : आपने लक्ष्मण नाम से तादाम्य नहीं जोड़ा । नामों से पहचान की सतही पर्त तैयार होती है । याद रखिये, यदि आपका नाम राम न हो, तब भी आप होगें । या यदि आपका कोई भी नाम न हो, तब भी आप होगें । इसका सीधा सा अर्थ है कि हम किसी भी नाम जैसी पहचान के बिना भी होते हैं ।             अगली बात है संस्कार । संस्कार वास्तव में तादाम्य से पैदा होते हैं । मृत्यु के क्षण हम विशेष प्रकार के संस्कारों से भरे होते हैं, और यही संस्कार हमारे पुनर्जन्म का कारण बनते हैं । अतः, संस्कार आंशिक रूप से हमारी पहचानों से निकलते हैं । आंशिक रूप से हमारी इच्छाओं से । जितनी इच्छाएँ हमारे अन्दर होती हैं, उतना प्रबल हमारा मन होता है क्योंकि मन ही इच्छाओं को पैदा करता है और उन्हें पोषित भी करता है । जितने ज़्यादा संस्कार आपके अन्दर होते हैं, उतनी ही पुनर्जन्म की सम्भावना प्रबल होती है ।             पुनर्जन्म होता है या नहीं यह हमेशा से विवाद का विषय रहा है । वैसे, हमारा मन कैसे काम करता है, हमारी इच्छाएँ हमें कैसे पीड़ा देती हैं, ये जानने के लिए हमें मरने की आवश्यकता नहीं है । हम इसे दैनिक जीवन के उदाहरणों से भी समझ सकते हैं । यदि कोई व्यक्ति एक बड़ा सा घर या कोई शानदार गाड़ी ख़रीदने के लिए लालायित है तो वह इन्हीं चीज़ों के सपने देखेगा । इच्छाएँ ही सपनों को निर्मित करती हैं । यदि कोई प्रधानमंत्री या कोई बड़ा उद्योगपति बनना चाहता है तो उसे सपने भी वैसे ही आएंगे । जितने ज़्यादा सपने होगें उतना लम्बा जीवन खिंचेगा । सीधी सी बात है कि उन सपनों को पूरा करने के लिए समय भी तो चाहिए । इसके उल्टे, जितने कम सपने उतनी आसानी से मृत्यु स्वीकार होगी । और एक स्वप्नरहित चित्त मृत्यु का सहजता से स्वागत करेगा क्योंकि फिर जीवन पूर्ण होगा, कुछ भी अधूरा नहीं छूट रहा होगा । इसीलिए सदियों से सारे बुद्धों, ऋषियों, संतों ने इच्छाओं के निषेध का पाठ सिखाया है । और याद रखिये, केवल वे ही इच्छाएँ दुःख नहीं देतीं जो पूरी नहीं होतीं, बल्कि वे इच्छाएँ भी दुःख देती हैं जो पूरी हो जाती हैं क्योंकि वे नयी इच्छाएँ पैदा करती हैं । कल्पना करें कि आपको अपनी मनपसंद नौकरी मिल जाती है । और मन कहता है, “देखो, मैं सन्तुष्ट हूँ अब । मेरी अब कोई और इच्छा नहीं है । तुम्हारे संत निर्बुद्धि हैं जो यह कहते हैं कि इच्छाएँ कभी पूरी नहीं हो सकतीं ।” लेकिन मन फिर दूसरी दिशा में लालायित हो जाता है : “यह तो सच है कि तुम्हारी नौकरी बहुत अच्छी है । लेकिन यह शहर बड़ा प्रदूषित है । कोई साफ़-सुथरी जगह यही नौकरी मिल जाए तो फिर बात ही क्या!” और इस तरह इच्छाओं का द्वन्द पैदा होता रहता है ।             जैसे ही आप इच्छाएँ त्याग देते हैं आप अपने और शरीर के बीच एक दूरी देखने लगते हैं । और जितनी कम इच्छाएँ उतना शिथिल मन । धीरे-धीरे मन का विलय होता जाता है । और एक क्षण आता है जब मन बचता ही नहीं । उस अवस्था को अ-मन अवस्था या मनातीत कहते हैं । अचानक आप पाते हैं कि आप दृष्टा-मात्र हैं । इसे ही कृष्ण ने गीता में साक्षी कहा है । इसके बाद आता है मौन, एक गहन शून्य । इस मौन में आप स्वयं के साक्षी हो जाते हैं । यह सबसे अजीब अनुभव है । एक क्षण के लिए आप को लगता है कि आप हैं ही नहीं । साथ ही, आप दूसरों के शरीर के भी साक्षी हो जाते हैं । तब आपको यह अनुभूति होती है कि बिना शरीर के भी आपका अस्तित्व हो सकता है । मैं दोहराता हूँ : आप बिना देह के भी हो सकते हैं । इस साक्षी-भाव में मृत्यु का भय समाप्त हो जाता है क्योंकि आप जान लेते हैं कि शरीर के नष्ट होने पर भी आप जीवित रहेंगे ।             इसीलिए यह कहा जा सकता है कि मृत्यु दो प्रकार की होती है : बाह्य मृत्यु और आतंरिक मृत्यु । बाह्य मृत्यु देह की मृत्यु है, पदार्थ की मृत्यु; आतंरिक मृत्यु है तादाम्य की मृत्यु, संस्कारों की, इच्छाओं की, मन की मृत्यु । जब तक हम आतंरिक मृत्यु नहीं मरते तब तक मृत्यु के भय से मुक्त होना असंभव है । हमें बार-बार मरना पड़ेगा । यह बाह्य मृत्यु ही इस जगत का सबसे बड़ा दुःख है ।             बुद्ध ने कहा है कि जगत दुखपूर्ण है । उन्होंने यह बात बड़े स्पष्ट और प्रत्यक्ष रूप में कही है । वे जीवन के कटु अनुभवों की ही बात नहीं कर रहे; उनके अनुसार, जीवन अपने आप में ही दुःख है । नानक ने भी कहा है, “नानक, दुखिया सब संसार ।” बुद्ध और नानक हमें बड़े निराशावादी से लगते हैं । वे कहना क्या चाहते हैं ? वे यह कहना चाहते हैं कि जब तक हम बाह्य मृत्यु मरते रहेंगे तब तक दुखी रहेंगे । क्यों ? क्योंकि इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि आप क्या करते हैं, कितना धन-प्रिसिद्धि पाते हैं, आपके साथ कितने भले, प्रेमी लोग हैं; जब तक मृत्यु है सब कुछ छूट ही जाना है । इसे ही बुद्ध ने अनित्यता का नियम कहा है । जो भी चीज़ समाप्त होने ही वाली है वह कभी स्थायी आनंद नहीं दे सकती ।             संस्कृत में एक शब्द है ‘क्षणभंगुर’, क्षण में भंग हो जाने वाला । हमें ऐसा लगता है कि जो चीज़ें कम अवधि तक जीवित रहती हैं वे क्षणभंगुर हैं । जैसे कि किसी पकवान का स्वाद, आप उसे जीभ पर रखते है, निगलते हैं, और स्वाद समाप्त । फिर आपकी जीभ उस स्वाद का मज़ा दुबारा नहीं ले सकती । यह क्षणिक है । इसीलिए हम यही निष्कर्ष निकालते हैं कि जिनका जीवन छोटा है वे चीज़े या घटनाएँ क्षणभंगुर हैं । लेकिन ऐसा नहीं है । जो कुछ भी समय में बंधा है, समय की परिधि तक सीमित है वह क्षणभंगुर है । यदि उसकी उम्र एक सौ साल या एक हज़ार साल भी हो तब भी वह क्षणभंगुर ही है । क्या आपके साथ कभी ऐसा नहीं होता कि आपकी दो महीने लम्बी छुट्टियाँ ऐसा लगता है मानो एक क्षण में ही बीत गयी हों ? बहुत लोग ऐसे हैं जिन्हें लगता है कि उनकी पूरी ज़िन्दगी ही एक क्षण में निकल गयी । समय-बद्ध जीवन या अनुभव हमेशा ही क्षणिक होता है । इसके विपरीत, जो समय के पार है वह नित्य, ‘इटरनल’ है । नित्य का अर्थ “हमेशा के लिए” नहीं होता । इसका मतलब है समयशून्यता । और यह समयशून्यता ही अमरता है । जब कभी आप समय के पार होते हैं, चाहे एक क्षण के लिए ही सही, आप अमरत्व को चख लेते हैं । कोई भी क्षण जब गहन त्वरा में जिया जाए तो वह आपको समय से मुक्त कर देता है ।             अब हमें समय के शून्य होने और समय के खोने में अंतर समझना होगा । जब आप बेहोश होते हैं तब पता ही नहीं चलता कि समय कैसे बीत गया । इस स्थिति में आप समय को महसूस नहीं करते । लेकिन फिर भी, आप समय के पार नहीं होते, बस बेहोश होते हैं । उदाहरण के लिए, आप आठ या दस घंटे सोते हैं । जब आप उठते हैं आप को लगता है कि मानो एक मिनट ही गुज़रा है । यह समयशून्यता नहीं है । दूसरी तरफ़, जब आप होश में होते हैं, किसी चीज़ के प्रति नहीं, बस होश में, वर्तमान क्षण में डूबे हुए, तब आप समय के आयाम का अतिक्रमण कर जाते हैं । जैसे, जब कभी कोई खेल खेलते हैं जो आपको बहुत पसंद है । आप पूरे-के-पूरे डूबे होते हैं । तब कोई मन नहीं होता जो समय की गणना करे । उस क्षण, जाने-अनजाने, आप समय के पार होते हैं ।             समयशून्यता ही नित्यता है और समयबद्धता ही अनित्यता है ।            जब आप स्वयं और शरीर के बीच एक दूरी देखने लगते हैं, जब शरीर के साक्षी होते हैं, तब आप समयशून्य, या अमर होते हैं । अमरत्व की इस रौशनी में मृत्यु का अँधेरा छंट जाता है ।             लेकिन ये सारे सत्य हमें अपने अनुभव से जानने चाहिए । बिना अनुभव हमें दुःख ही मिलने वाला है । ऐसे लोग हैं जिन्होंने सारी “पवित्र” नदियों–गंगा, यमुना, सरस्वती–में डुबकियाँ लगाईं हैं, सारे “पवित्र” स्थानों पर तीर्थयात्रा की है । धार्मिक किताबें कहती हैं कि इन नदियों में डुबकियाँ लगाने से और तीर्थयात्रा करने से मोक्ष मिलता है । मैं ऐसे सैकड़ों लोगों से मिला हूँ जिन्होंने पूरा जीवन डुबकियाँ लगाने और तीर्थयात्रा करने में बिता दिया । फिर भी, वे मृत्यु से भयभीत हैं । क्यों ? अनुभव की कमी के कारण । और जानकारी और अनुभव के अंतर ने न केवल दुःख पैदा किया है बल्कि अंतर्विरोध भी । उदाहरण के लिए, मनुस्मृति में मनु ब्राह्मण को द्विज कहता है । द्विज का अर्थ जिसका दुबारा जन्म हुआ है । और फिर एक जगह मनु कहता है कि यदि कोई ब्राह्मण कोई पाप करता है तो उस पाप से मुक्ति के लिए उसे कुछ संस्कार करने होगें । अब, यह मूढ़ता है । द्विज का अर्थ है जिसने आतंरिक मृत्यु जी ली है और उसका पुनर्जन्म हो गया है । जिसका मन तिरोहित हो गया है वही द्विज है । द्विज की सारे तादाम्य टूट गए हैं, और पर्दे के पीछे छिपे अरूप और अनाम व्यक्त हो गया है । जीसस भी बाइबिल में यही बात कहते हैं : “जब तक आपका दुबारा जन्म नहीं होता तब तक आप परमात्मा के राज्य में प्रवेश नहीं कर सकते ।” जीसस एवं ऋषि एक ही बात कह रहे हैं क्योंकि उन्होंने अपने द्विज तत्व की अनुभूति कर ली है । लेकिन मनु जैसे पुरोहित ऐसी ही बातें करने वाले हैं : वे एक व्यक्ति को द्विज भी कह सकते हैं और यह भी सोच सकते हैं कि वह कोई पाप भी कर सकता है! द्विज का अर्थ है अहम् की आहुति चढ़ गयी, अहम् भस्म हो गया । स्वाहा! और जो रहा ही नहीं, जो अकर्ता बन गया, जो समर्पित हो गया, वह पाप कैसे करेगा ?! द्विज तो एक माध्यम मात्र होता है । वह कोई अपराध कैसे कर सकता है ? कोई चाकू ख़ुद से किसी की हत्या कैसे कर सकता है ? कोई व्यक्ति इससे किसी को मार सकता है, और फिर वो व्यक्ति ही अपराधी होगा । और यहाँ तो स्वयं जीवन शक्ति, परम चेतना, स्वयं अस्तित्व ही उस यन्त्र का उपयोग कर रहा है । इसीलिए द्विज को पापी कहना का अर्थ स्वयं अस्तित्व को पापी कहना है । मनुस्मृति में ऐसे अंतर्विरोध हर जगह मिल जाएँगे । यही अंतर होता है एक तोता पंडित और अनुभवी ज्ञानी में ।             अंततः, यदि मरणातीत को जानना चाहते हैं तो इसे अपने अन्दर खोजें । एक बार आप इसे जान लें तो मृत्यु मिट जाती है । और यह प्रश्न, “मृत्यु क्या है ?” भी मिट जाता है । फिर न कोई बाह्य मृत्यु होती है, न आतंरिक मृत्यु; फिर शाश्वत जीवन होता है ।मृत्यु अस्तित्व का गहनतम रहस्य है । ईश्वर भी इतना गहरा रहस्य नहीं है, प्रेम भी इतना गहरा रहस्य नहीं है जितनी मृत्यु क्योंकि ईश्वर को झुठलाया जा सकता है, प्रेम से बचा जा सकता है; लेकिन मृत्यु को कोई नहीं झुठला सकता, इससे कोई नहीं बच सकता । मृत्यु हर जगह मौजूद दिखती है, हर क्षण घटित होती हुई, हर वस्तु, हर व्यक्ति को नष्ट करती हुई। इसलिए मृत्यु हर जागरूक व्यक्ति के लिए एक चुनौतीपूर्ण प्रश्न बन गयी है ।
मुख्यतः, मृत्यु में क्षति और विनाश के भाव निहित हैं । इससे होने वाली क्षति साधारण नहीं होती । यह सब कुछ छीन लेती है। इस क्षति से कभी उबरा नहीं जा सकता । जो गुज़र गया वह कभी लौटकर नहीं आता । इसलिए इससे बड़ी क्षति कोई नहीं । और विनाश भी साधारण नहीं, बल्कि पूर्ण विनाश होता है, महाविनाश । मृत व्यक्ति का पूरा-का-पूरा अस्तित्व ही मिट जाता है । नामोनिशान समाप्त हो जाता है । यही कारण है कि मृत्यु मनुष्य का सबसे डरावना, सबसे आतंकित करने वाला अनुभव बन गई है ।
किन्तु जब भी हम मृत्यु को देखते हैं हम हमेशा इसे बाहर से ही देखते हैं । इसे देखने का एक और दृष्टिकोण आतंरिक दृष्टि है । बाहर से देखने पर मृत्यु सदैव ही विनाशकारी प्रतीत होती है क्योंकि यह हर वह चीज़ नष्ट कर देती है जिसे हम सच मानकर चलते हैं । और चूँकि हम शरीर से भिन्न कुछ और नहीं देख पाते और मृत्यु शरीर को नष्ट कर देती है इसीलिए हमें मृत्यु विनाशकारी दिखती है । आतंरिक दृष्टि से हमें अपने अन्दर एक गहन मौन की अनुभूति होती है, और इस मौन में मृत्यु मिट जाती है । मृत्यु कभी इस मौन को छू नहीं पाती ।
इन दो दृष्टिकोणों ने मृत्यु के सम्बन्ध में दो विपरीत मतों को जन्म दिया है । एक मत यह है कि मृत्यु सबसे विनाशकारी शक्ति है और दूसरा यह कि मृत्यु जैसी कोई चीज़ होती ही नहीं । ओशो कहते हैं कि मृत्यु सबसे बड़ा झूठ है । यदि मृत्यु झूठ ही है तो यह हमें इतनी पीड़ा, इतना विषाद क्यों देती है ? और सबसे बढ़कर, यह हमें इतना डराती क्यों है ? उत्तर है : सीमित दृष्टि । एक बार आप आतंरिक दृष्टि को जान लें, तब पहली बार आप उस मौन को जानते हैं जो मृत्यु के पार है । और सबसे महत्तवपूर्ण बात यह है कि जिस क्षण आप अपने अन्दर मरणातीत मौन को जानते हैं उसी क्षण आप दूसरों में भी उसी मौन को जान लेते हैं, फिर चाहे दूसरों को उस मौन की अनुभूति हो या न हो । और उसी क्षण आप मुक्त हो जाते हैं। मरणातीत की अनुभूति परम मुक्ति है । मेरे गृहनगर कटनी में एक बुजुर्ग सज्जन थे । एक दिन उनके पास एक व्यक्ति अचानक आया और उन्हें बताया कि उनके बेटे की एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई है । बुजुर्ग ने ऐसी प्रतिक्रिया दी मानो कुछ हुआ ही न हो । वे बिलकुल शांत और स्थिर थे । उनकी शांतचित्त दशा इतनी अजीब नहीं थी जितना उनका उत्तर । उन्होंने संदेशवाहक से कहा, “मैं अपने लिए मिठाई ख़रीदने जा रहा हूँ । तो तुम लोग एक काम करो : अर्थी तैयार करके श्मशान पहुँचो । मैं तुम्हें वहीं मिलूँगा ।” कमाल की बात है! बाहरी तौर पर ऐसा लगता है कि बुजुर्ग बड़े कठोर हृदय थे । लेकिन ऐसा नहीं था । वे एक गहरे ध्यानी थे । वे वर्षों से ध्यान कर रहे थे और उन्होंने निश्चित ही मरणातीत को जाना था । फिर उन्हें शोक कैसा ? उन्हें मालूम था कि उनके बेटे की देह मात्र नष्ट हुई है । कोई कारण नहीं था कि वे “क्षति” का शोक मनाएं । क्योंकि कोई क्षति हुई ही नहीं थी । शोक मनाना उतनी ही बचकानी बात थी मानो कोई किसी वस्त्र के नष्ट होने पर यह सोच रहा हो कि वस्त्र के साथ-साथ वस्त्र पहनने वाला भी नष्ट हो गया । उन बुजुर्ग ध्यानी ने यह बात जान ली थी कि देह एक वस्त्र मात्र है और इसके अन्दर उपस्थित चेतन सत्य अक्षय और अविनाशी है । ऐसी ही एक और घटना है : भारत में एक आध्यात्मिक आचार्य हैं जग्गी वासुदेव । उनकी पत्नी की योग मृत्यु हुई, अर्थात् उन्होंने अपना शरीर स्वेच्छा से छोड़ा । उन्होंने यह सैकड़ों लोगों की उपस्थिति में किया । उनके लिए वह क्षण आ गया था जो हज़ारों जन्मों के बाद आता है जब कोई व्यक्ति अपने सारे तादात्म्य तोड़ देता है, अपने और अपने शरीर के बीच में अंतर जान लेता है, और स्वेच्छा से देह त्याग करने के लिए तैयार होता है । इसीलिए उन्होंने शरीर छोड़ दिया, उतनी सरलता से जितनी सरलता से हम वस्त्र उतार देते हैं । और जग्गी वासुदेव, जब वे यह कहानी सुना रहे थे, परम शांत थे मानो कुछ हुआ ही न हो । जग्गी एवं उनकी पत्नी दोनों ने अशरीरी को जाना था इसलिए उन्होंने मृत्यु को इतनी सहजता, इतने प्रेम से स्वीकारा । ये लोग–बुजुर्ग और जग्गी एवं उनकी पत्नी–मृत्यु को एक प्रकार से जीते हैं और शोक, संताप, भय से ग्रस्त लोग दूसरे प्रकार से ।
इन विपरीत मतों के बीच का अन्तर कहाँ से पैदा होता है ? अंतर साक्षीभाव से आता है । साक्षी बनकर उसे जाना जा सकता है जो देह के पार है । और इस तरह विदेह होकर वही चेतन तत्व दूसरों में भी जाना जा सकता है । बिना यह जाने मृत्यु की पीड़ा से मुक्त नहीं हुआ जा सकता ।
आइये यह जानने का प्रयास करें कि वह क्या है जिससे मृत्यु का आभास होता है, मृत्यु के बाद क्या शेष रहता है, और उस शेष तत्व को कैसे जाना जा सकता है ।
सबसे पहले हमें यह समझना है कि मनुष्य के अस्तित्व कितनी पर्तें हैं । आमतौर पर यह माना जाता है कि मनुष्य दो चीज़ों से बना है : पदार्थ और चेतना । पदार्थ में सभी भौतिक चीजें शामिल हैं जैसे फेफड़े, गुर्दे, हृदय, हाथ, पैर, इत्यादि । और परम तत्व, यानि जीवन शक्ति है चेतना । दरअसल, एक और पर्त है : मन । मन शरीर और चेतना के बीच की कड़ी है । मन ही दोनों को जोड़ कर रखता है । मन इस जगत का सबसे पेचीदा यन्त्र है । इसी के माध्यम से संस्कार अपनी यात्रा करते हैं, जो कि पुनर्जन्म का कारण बनते हैं । दूसरे, मन ही तादाम्य का जनक है । इसी तादाम्य के कारण हम शरीर से बंध जाते हैं और चेतना को भूल जाते हैं । इसलिए हम मन के इन दो पहलुओं– तादाम्य का जनक और संस्कारों का वाहक–के बारे में चर्चा करेंगे ।
यदि आपको स्वयं को परिभाषित करने को कहा जाये तो आपका उत्तर, बहुत संभव है, आपका नाम होगा, फिर आपके पिता नाम, माता का नाम, आपका परिवार, और आपका व्यवसाय । जब आप यह विश्वास करने लगते हैं कि ये चीज़े आपको परिभाषित करती हैं तब आप इनसे बंध जाते हैं । फिर इस बंधन को तोड़ पाना बहुत मुश्किल होता है । जब आप यह मानने लगते हैं कि इन पहचानों ने आपकी रचना की है, तब यदि कोई इनको मिटाने का प्रयास करता है तो अचानक आपको भय महसूस होने लगता, मानो मृत्यु का भय हो । कल्पना करके देखें कि आपका कोई नाम, कोई पारिवारिक संबंध, कोई व्यावसायिक जुड़ाव, कुछ भी नहीं है । तब आप इस जगत में किस रूप में विद्दमान होगें ? आप केवल मौन-रूप में होगें । वह मौन ही मरणातीत है । इसके विपरीत, आपके अन्दर पहचानों की जितनी भीड़ होगी, उतना कम मौन होगा; और जितना कम मौन होगा, उतना मृत्यु का भय होगा । तो सबसे पहली बात यह समझनी है कि मन से तादाम्य पैदा होता है और तादाम्य से दुःख पैदा होता है । कभी अवलोकन करके देखें : मान लें आपका नाम राम है । अब, यदि कोई व्यक्ति राम को गाली दे रहा हो, आपको नहीं, कोई और राम, तब आपको कुछ चुभेगा, आप आहत होगें । क्यों ? क्योंकि आपने ‘राम’ नाम से तादाम्य जोड़ लिया है । और यदि कोई लक्ष्मण को गाली दे तो आपको आहत नहीं होगें । क्यों ? वही कारण : आपने लक्ष्मण नाम से तादाम्य नहीं जोड़ा । नामों से पहचान की सतही पर्त तैयार होती है । याद रखिये, यदि आपका नाम राम न हो, तब भी आप होगें । या यदि आपका कोई भी नाम न हो, तब भी आप होगें । इसका सीधा सा अर्थ है कि हम किसी भी नाम जैसी पहचान के बिना भी होते हैं ।
अगली बात है संस्कार । संस्कार वास्तव में तादाम्य से पैदा होते हैं । मृत्यु के क्षण हम विशेष प्रकार के संस्कारों से भरे होते हैं, और यही संस्कार हमारे पुनर्जन्म का कारण बनते हैं । अतः, संस्कार आंशिक रूप से हमारी पहचानों से निकलते हैं । आंशिक रूप से हमारी इच्छाओं से । जितनी इच्छाएँ हमारे अन्दर होती हैं, उतना प्रबल हमारा मन होता है क्योंकि मन ही इच्छाओं को पैदा करता है और उन्हें पोषित भी करता है । जितने ज़्यादा संस्कार आपके अन्दर होते हैं, उतनी ही पुनर्जन्म की सम्भावना प्रबल होती है ।
पुनर्जन्म होता है या नहीं यह हमेशा से विवाद का विषय रहा है । वैसे, हमारा मन कैसे काम करता है, हमारी इच्छाएँ हमें कैसे पीड़ा देती हैं, ये जानने के लिए हमें मरने की आवश्यकता नहीं है । हम इसे दैनिक जीवन के उदाहरणों से भी समझ सकते हैं । यदि कोई व्यक्ति एक बड़ा सा घर या कोई शानदार गाड़ी ख़रीदने के लिए लालायित है तो वह इन्हीं चीज़ों के सपने देखेगा । इच्छाएँ ही सपनों को निर्मित करती हैं । यदि कोई प्रधानमंत्री या कोई बड़ा उद्योगपति बनना चाहता है तो उसे सपने भी वैसे ही आएंगे । जितने ज़्यादा सपने होगें उतना लम्बा जीवन खिंचेगा । सीधी सी बात है कि उन सपनों को पूरा करने के लिए समय भी तो चाहिए । इसके उल्टे, जितने कम सपने उतनी आसानी से मृत्यु स्वीकार होगी । और एक स्वप्नरहित चित्त मृत्यु का सहजता से स्वागत करेगा क्योंकि फिर जीवन पूर्ण होगा, कुछ भी अधूरा नहीं छूट रहा होगा । इसीलिए सदियों से सारे बुद्धों, ऋषियों, संतों ने इच्छाओं के निषेध का पाठ सिखाया है । और याद रखिये, केवल वे ही इच्छाएँ दुःख नहीं देतीं जो पूरी नहीं होतीं, बल्कि वे इच्छाएँ भी दुःख देती हैं जो पूरी हो जाती हैं क्योंकि वे नयी इच्छाएँ पैदा करती हैं । कल्पना करें कि आपको अपनी मनपसंद नौकरी मिल जाती है । और मन कहता है, “देखो, मैं सन्तुष्ट हूँ अब । मेरी अब कोई और इच्छा नहीं है । तुम्हारे संत निर्बुद्धि हैं जो यह कहते हैं कि इच्छाएँ कभी पूरी नहीं हो सकतीं ।” लेकिन मन फिर दूसरी दिशा में लालायित हो जाता है : “यह तो सच है कि तुम्हारी नौकरी बहुत अच्छी है । लेकिन यह शहर बड़ा प्रदूषित है । कोई साफ़-सुथरी जगह यही नौकरी मिल जाए तो फिर बात ही क्या!” और इस तरह इच्छाओं का द्वन्द पैदा होता रहता है ।
जैसे ही आप इच्छाएँ त्याग देते हैं आप अपने और शरीर के बीच एक दूरी देखने लगते हैं । और जितनी कम इच्छाएँ उतना शिथिल मन । धीरे-धीरे मन का विलय होता जाता है । और एक क्षण आता है जब मन बचता ही नहीं । उस अवस्था को अ-मन अवस्था या मनातीत कहते हैं । अचानक आप पाते हैं कि आप दृष्टा-मात्र हैं । इसे ही कृष्ण ने गीता में साक्षी कहा है । इसके बाद आता है मौन, एक गहन शून्य । इस मौन में आप स्वयं के साक्षी हो जाते हैं । यह सबसे अजीब अनुभव है । एक क्षण के लिए आप को लगता है कि आप हैं ही नहीं । साथ ही, आप दूसरों के शरीर के भी साक्षी हो जाते हैं । तब आपको यह अनुभूति होती है कि बिना शरीर के भी आपका अस्तित्व हो सकता है । मैं दोहराता हूँ : आप बिना देह के भी हो सकते हैं । इस साक्षी-भाव में मृत्यु का भय समाप्त हो जाता है क्योंकि आप जान लेते हैं कि शरीर के नष्ट होने पर भी आप जीवित रहेंगे ।
इसीलिए यह कहा जा सकता है कि मृत्यु दो प्रकार की होती है : बाह्य मृत्यु और आतंरिक मृत्यु । बाह्य मृत्यु देह की मृत्यु है, पदार्थ की मृत्यु; आतंरिक मृत्यु है तादाम्य की मृत्यु, संस्कारों की, इच्छाओं की, मन की मृत्यु । जब तक हम आतंरिक मृत्यु नहीं मरते तब तक मृत्यु के भय से मुक्त होना असंभव है । हमें बार-बार मरना पड़ेगा । यह बाह्य मृत्यु ही इस जगत का सबसे बड़ा दुःख है ।
बुद्ध ने कहा है कि जगत दुखपूर्ण है । उन्होंने यह बात बड़े स्पष्ट और प्रत्यक्ष रूप में कही है । वे जीवन के कटु अनुभवों की ही बात नहीं कर रहे; उनके अनुसार, जीवन अपने आप में ही दुःख है । नानक ने भी कहा है, “नानक, दुखिया सब संसार ।” बुद्ध और नानक हमें बड़े निराशावादी से लगते हैं । वे कहना क्या चाहते हैं ? वे यह कहना चाहते हैं कि जब तक हम बाह्य मृत्यु मरते रहेंगे तब तक दुखी रहेंगे । क्यों ? क्योंकि इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि आप क्या करते हैं, कितना धन-प्रिसिद्धि पाते हैं, आपके साथ कितने भले, प्रेमी लोग हैं; जब तक मृत्यु है सब कुछ छूट ही जाना है । इसे ही बुद्ध ने अनित्यता का नियम कहा है । जो भी चीज़ समाप्त होने ही वाली है वह कभी स्थायी आनंद नहीं दे सकती ।
संस्कृत में एक शब्द है ‘क्षणभंगुर’, क्षण में भंग हो जाने वाला । हमें ऐसा लगता है कि जो चीज़ें कम अवधि तक जीवित रहती हैं वे क्षणभंगुर हैं । जैसे कि किसी पकवान का स्वाद, आप उसे जीभ पर रखते है, निगलते हैं, और स्वाद समाप्त । फिर आपकी जीभ उस स्वाद का मज़ा दुबारा नहीं ले सकती । यह क्षणिक है । इसीलिए हम यही निष्कर्ष निकालते हैं कि जिनका जीवन छोटा है वे चीज़े या घटनाएँ क्षणभंगुर हैं । लेकिन ऐसा नहीं है । जो कुछ भी समय में बंधा है, समय की परिधि तक सीमित है वह क्षणभंगुर है । यदि उसकी उम्र एक सौ साल या एक हज़ार साल भी हो तब भी वह क्षणभंगुर ही है । क्या आपके साथ कभी ऐसा नहीं होता कि आपकी दो महीने लम्बी छुट्टियाँ ऐसा लगता है मानो एक क्षण में ही बीत गयी हों ? बहुत लोग ऐसे हैं जिन्हें लगता है कि उनकी पूरी ज़िन्दगी ही एक क्षण में निकल गयी । समय-बद्ध जीवन या अनुभव हमेशा ही क्षणिक होता है । इसके विपरीत, जो समय के पार है वह नित्य, ‘इटरनल’ है । नित्य का अर्थ “हमेशा के लिए” नहीं होता । इसका मतलब है समयशून्यता । और यह समयशून्यता ही अमरता है । जब कभी आप समय के पार होते हैं, चाहे एक क्षण के लिए ही सही, आप अमरत्व को चख लेते हैं । कोई भी क्षण जब गहन त्वरा में जिया जाए तो वह आपको समय से मुक्त कर देता है ।
अब हमें समय के शून्य होने और समय के खोने में अंतर समझना होगा । जब आप बेहोश होते हैं तब पता ही नहीं चलता कि समय कैसे बीत गया । इस स्थिति में आप समय को महसूस नहीं करते । लेकिन फिर भी, आप समय के पार नहीं होते, बस बेहोश होते हैं । उदाहरण के लिए, आप आठ या दस घंटे सोते हैं । जब आप उठते हैं आप को लगता है कि मानो एक मिनट ही गुज़रा है । यह समयशून्यता नहीं है । दूसरी तरफ़, जब आप होश में होते हैं, किसी चीज़ के प्रति नहीं, बस होश में, वर्तमान क्षण में डूबे हुए, तब आप समय के आयाम का अतिक्रमण कर जाते हैं । जैसे, जब कभी कोई खेल खेलते हैं जो आपको बहुत पसंद है । आप पूरे-के-पूरे डूबे होते हैं । तब कोई मन नहीं होता जो समय की गणना करे । उस क्षण, जाने-अनजाने, आप समय के पार होते हैं ।
समयशून्यता ही नित्यता है और समयबद्धता ही अनित्यता है ।
जब आप स्वयं और शरीर के बीच एक दूरी देखने लगते हैं, जब शरीर के साक्षी होते हैं, तब आप समयशून्य, या अमर होते हैं । अमरत्व की इस रौशनी में मृत्यु का अँधेरा छंट जाता है ।
लेकिन ये सारे सत्य हमें अपने अनुभव से जानने चाहिए । बिना अनुभव हमें दुःख ही मिलने वाला है । ऐसे लोग हैं जिन्होंने सारी “पवित्र” नदियों–गंगा, यमुना, सरस्वती–में डुबकियाँ लगाईं हैं, सारे “पवित्र” स्थानों पर तीर्थयात्रा की है । धार्मिक किताबें कहती हैं कि इन नदियों में डुबकियाँ लगाने से और तीर्थयात्रा करने से मोक्ष मिलता है । मैं ऐसे सैकड़ों लोगों से मिला हूँ जिन्होंने पूरा जीवन डुबकियाँ लगाने और तीर्थयात्रा करने में बिता दिया । फिर भी, वे मृत्यु से भयभीत हैं । क्यों ? अनुभव की कमी के कारण । और जानकारी और अनुभव के अंतर ने न केवल दुःख पैदा किया है बल्कि अंतर्विरोध भी । उदाहरण के लिए, मनुस्मृति में मनु ब्राह्मण को द्विज कहता है । द्विज का अर्थ जिसका दुबारा जन्म हुआ है । और फिर एक जगह मनु कहता है कि यदि कोई ब्राह्मण कोई पाप करता है तो उस पाप से मुक्ति के लिए उसे कुछ संस्कार करने होगें । अब, यह मूढ़ता है । द्विज का अर्थ है जिसने आतंरिक मृत्यु जी ली है और उसका पुनर्जन्म हो गया है । जिसका मन तिरोहित हो गया है वही द्विज है । द्विज की सारे तादाम्य टूट गए हैं, और पर्दे के पीछे छिपे अरूप और अनाम व्यक्त हो गया है । जीसस भी बाइबिल में यही बात कहते हैं : “जब तक आपका दुबारा जन्म नहीं होता तब तक आप परमात्मा के राज्य में प्रवेश नहीं कर सकते ।” जीसस एवं ऋषि एक ही बात कह रहे हैं क्योंकि उन्होंने अपने द्विज तत्व की अनुभूति कर ली है । लेकिन मनु जैसे पुरोहित ऐसी ही बातें करने वाले हैं : वे एक व्यक्ति को द्विज भी कह सकते हैं और यह भी सोच सकते हैं कि वह कोई पाप भी कर सकता है! द्विज का अर्थ है अहम् की आहुति चढ़ गयी, अहम् भस्म हो गया । स्वाहा! और जो रहा ही नहीं, जो अकर्ता बन गया, जो समर्पित हो गया, वह पाप कैसे करेगा ?! द्विज तो एक माध्यम मात्र होता है । वह कोई अपराध कैसे कर सकता है ? कोई चाकू ख़ुद से किसी की हत्या कैसे कर सकता है ? कोई व्यक्ति इससे किसी को मार सकता है, और फिर वो व्यक्ति ही अपराधी होगा । और यहाँ तो स्वयं जीवन शक्ति, परम चेतना, स्वयं अस्तित्व ही उस यन्त्र का उपयोग कर रहा है । इसीलिए द्विज को पापी कहना का अर्थ स्वयं अस्तित्व को पापी कहना है । मनुस्मृति में ऐसे अंतर्विरोध हर जगह मिल जाएँगे । यही अंतर होता है एक तोता पंडित और अनुभवी ज्ञानी में ।
अंततः, यदि मरणातीत को जानना चाहते हैं तो इसे अपने अन्दर खोजें । एक बार आप इसे जान लें तो मृत्यु मिट जाती है । और यह प्रश्न, “मृत्यु क्या है ?” भी मिट जाता है । फिर न कोई बाह्य मृत्यु होती है, न आतंरिक मृत्यु; फिर शाश्वत जीवन होता है ।

 

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